Friday, November 11, 2022

Friday, March 12, 2021

Reactivating my blog

 I was not writing on this blog of mine as it was not available. Some how I could recover it today itself so decided to  be active on this blog again.

Friday, June 27, 2014

आसान है दिल्ली विश्वविद्यालय विवाद का हल.

 

 

हमारे देश में किसी भी मामले को विवादित बनाने और उस विवाद की आड़ में विभिन्न राजनीतिक दलों व विचारधाराओं के अनुयायियों द्वारा अपना हित साधने की अंतहीन कोशिश जारी रखना एक परम्परा बन गयी है.कभी सामान्य से मामलों को अवांछित जिद,प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर व अपने अपने अहम की तुष्टि हेतु इतना तूल दिया जाता है कि प्रभावित पक्ष के हितों को भी ताक पर रख दिया जाता है. समाज को उचित दिशा देने हेतु सर्वाधिक जिम्मेदार तथाकथित बुद्धिजीवी भी इसी मानसिकता के अधिक शिकार देखे गए हैं.बुद्धिजीवी वर्ग भी खेमों में बंटा हुआ है तथा वह भी अपनी राजनीतिक विचार धारा के अनुसार किसी भी मुद्दे का आँख मूँद कर समर्थन या विरोध करने लग जाता है. क्या ऐसा नहीं हो सकता कि सार्वजनिक हित के मुद्दों पर आपसी मतभेद, व्यर्थ की जिद व टकराव को छोड़कर एक साथ मिल बैठ कर सामंजस्य से ऎसी नीति बनायी जाए जो देश के हर वर्ग के लिए लाभदायक हो तथा राष्ट्र की प्रगति में सहायक हो ? क्या किसी भी सरकार या संस्था के किसी भी निर्णय का बिना गुण दोष को जाँचे परखे इस आधार पर समर्थन या विरोध किया जाना आवश्यक है कि निर्णय लेने वाली सरकार या संस्था की विचारधारा से हमारी विचारधारा मेल खाती है या नहीं ? क्या ऐसे समर्थन या विरोध के समय समाज व देश के हित को सर्वोपरि नहीं रखा जाना चाहिए ? यदि किसी भी जटिल से जटिल समस्या का ईमानदारी व दृढ़ संकल्प से समाधान निकालने का प्रयास किया जाए तो कुछ भी असंभव नही है और आपसी बातचीत से हर जटिल समस्या का सुगम व सर्वमान्य हल निकाला जा सकता है.


ताजा विवाद दिल्ली यूनिवर्सिटी के चार वर्षीय डिग्री पाठ्यक्रम से उत्पन्न हुआ है जहां यूजीसी और त्रि-वर्षीय डिग्री पाठ्यक्रम के समर्थकों का बड़ा वर्ग और दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति व कार्य परिषद के चार वर्षीय पाठ्यक्रम के समर्थक एक दूसरे के आमने सामने हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ का एक बड़ा वर्ग व विभिन्न छात्र संगठन जहां त्रि-वर्षीय पाठ्यक्रम व यूजीसी के निर्देश के पक्ष में हैं तो वहीं दूसरी तरफ चार वर्षीय पाठ्यक्रम के समर्थक इसे विश्वविद्यालय की स्वायत्तता व अस्मिता से जोड़ कर देख रहे हैं तथा यूजीसी के किसी भी निर्देश को विश्वविद्यालय की स्वायत्तता में हस्तक्षेप मान रहे हैं. दोनों पक्ष कुछ हद तक अपनी अपनी मान्यताओं के बारे में सही हो सकते हैं लेकिन दोनों की आपसी लड़ाई में सर्वाधिक नुकसान छात्रों का ही हो रहा है वह भी उन छात्रों का जो सुदूर स्थानों से दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न कालेजों में प्रवेश के लिए आये हुए हैं.


देश में किसी भी विश्वविद्यालय या उच्च शिक्षा संस्थान की स्थापना विश्वविद्यालयअनुदान आयोग अधिनियम के प्रावधानों के अधीन होती है तथा विश्वविद्यालय स्थापना के बाद अपने नियम,परिनियम आदि बनाता है जिनके अनुरूप ही विश्वविद्यालय का प्रशासन चलता है. यूजीसी उच्च शिक्षा के क्षेत्र में देश की सर्वोच्च संस्था है तथा समस्त विश्वविद्यालयों को आर्थिक अनुदान प्रदान करती है. यूजीसी एक्ट में स्पष्ट प्रावधान है कि विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों को यूजीसी द्वारा समय समय पर जारी अधिसूचनाओं आदि के अनुसार अपने नियमों,परिनियमों आदि में संशोधन कर तदनुसार कार्यवाही करनी पड़ेगी तथा ऐसा न किये जाने की स्थिति में यूजीसी द्वारा उक्त विश्वविद्यालय को आर्थिक अनुदान देना समाप्त किया जा सकेगा तथा यदि यूजीसी अपनी उच्चाधिकार प्राप्त समितियों के माध्यम से जांच व समीक्षा के आधार पर यह पाती है कि विश्वविद्यालय या संस्थान द्वारा उसकी अधिसूचनाओं या मार्गदर्शी निर्देशों का पालन नहीं किया जा रहा है तो ऐसे विश्वविद्यालय या संस्थान की मान्यता भी रद्द की जा सकती है. शायद ही देश का ऐसा कोई अनुदान प्राप्त विश्वविद्यालय हो जो यूजीसी से आर्थिक अनुदान प्राप्त किये बिना ही स्वयं के स्त्रोतों से संचालित हो सके. यदि यूजीसी से अनुदान प्राप्त न हो तो अधो संरचना को तो छोड़ ही दीजिये शिक्षकों व अन्य कर्मचारियों का वेतन भुगतान भी करना संभव न होगा. यूजीसी सर्वोपरि है या विश्वविद्यालय की स्वायत्तता यह बहुत लम्बी बहस का मुद्दा है तथा इसका समाधान खोजने तक शायद पूरा शैक्षणिक सत्र ही निकल जाए. यह सत्य है कि वर्तमान में राष्ट्रीय शिक्षा नीति में 10+2+3 की प्रणाली चल रही है तथा प्रथम डिग्री पाठ्यक्रम(त्रिवर्षीय या चार वर्षीय) में प्रवेश हेतु 10+2 उत्तीर्ण होना आवश्यक है. देश के अधिकाँश विश्वविद्यालयों में त्रिवर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम लागू है जो गत सत्र से पूर्व दिल्ली विश्वविद्यालय में भी समान रूप से लागू था. कुछ विश्वविद्यालयों में चार वर्षीय पाठ्यक्रम वाला (स्नातक आनर्स) पाठ्यक्रम भी बहुत पहले से लागू है.यह भी सत्य है कि किसी भी उच्च शिक्षण संस्था को अपने पाठ्यक्रमों में फेरबदल करने हेतु कई औपचारिकताएं पूर्ण करने के बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से पूर्वानुमति लेना आवश्यक है तथा दिल्ली विश्वविद्यालय अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार नया पाठ्यक्रम प्रारम्भ करने से पूर्व विजिटर (दिल्ली विश्वविद्यालय के मामले में महामहिम राष्ट्रपति) की पूर्वानुमति आवश्यक है. दिल्ली विश्वविद्यालय ने चार वर्षीय पाठ्यक्रम शुरू करनेसे पहले विभिन्न औपचारिकताएं पूरी कीं या नहीं या फिर यह पाठ्यक्रम बिना औपचारिकताएं पूर्ण किये ही गत सत्र में अचानक लागू कर दिया गया यह जांच का विषय हो सकता है परन्तु वर्तमान विवाद उन छात्रों के फायदे व नुकसान से जुडा हुआ है जो गत सत्र में चार वर्षीय पाठ्यक्रम में प्रवेश ले चुके हैं तथा वर्तमान में विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने का इंतजार कर रहे हैं.ऐसे में छात्र हित को ध्यान में रखते हुए सभी पहलुओं पर निम्नानुसार विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है.


1)  देश के सर्वाधिक विश्वविद्यालयों यहाँ तक कि केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में तीन वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम लागू है और सफलतापूर्वक चल रहा है.

2)  सारे देश में स्नातकोत्तर कक्षाओं में प्रवेश हेतु स्नातक की डिग्री अनिवार्य है,ऐसे में जो छात्र चार वर्षीय स्नातक डिग्री के आधार पर स्नातकोत्तर कक्षाओं में   प्रवेश लेना चाहेंगे उन्हें एक वर्ष अधिक इन्तजार करना पडेगा.

3) वर्तमान में केंद्र की सिविल सर्विसेस व राज्य स्तरीय परीक्षाओं में न्यूनतम योग्यता स्नातक उपाधि है , ऐसे में चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम में प्रवेश लेने वाले छात्रों को नौकरी की तलाश में एक वर्ष अधिक इन्तजार करना होगा और उनके रोजगार के अवसर कम होंगे.

4) कई अन्य ऐसे रोजगार के क्षेत्र हैं जहां न्यूनतम वांछित योग्यता स्नातक या स्नातकोत्तर होती है,वहां भी चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम से उत्तीर्ण छात्रों को आवेदन करने पात्र होने हेतु एक वर्ष का नुकसान होगा.

5) इसी प्रकार का नुकसान उन छात्रों को उठाना पडेगा जो स्नातकोत्तर के बाद शोध पाठ्यक्रमों एम्.फिल या पीएचडी में प्रवेश के इच्छुक होंगे या फिर नेट या स्लेट की परीक्षाओं में सम्मिलित होना चाहते हैं.क्योंकि वर्तमान में इन पाठ्यक्रमों में प्रवेश हेतु न्यूनतम योग्यता स्नातकोत्तर उपाधि है.

6) अधिकांश कालेजों व विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेने वाले छात्रों में अधिकतम संख्या उन छात्रों की होती है जो निम्न,निम्न-मध्यम या मध्यम आर्थिक पृष्ठभूमि वाले परिवारों से आते हैं,ऐसे में चार वर्षीयपाठ्यक्रम पूर्ण करने के लिए इन वर्गों के छात्रों को अतिरिक्त आर्थिक बोझ उठाना पडेगा.

7) अब प्रश्न उठता है कि जिन छात्रों को गत सत्र में चार वर्षीय पाठ्यक्रमों में प्रवेश दे दिया गया है उनका क्या होगा. इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय है कि विगत वर्षों में भी कई विश्वविद्यालयों की मान्यताएं विभिन्न कारणों से निरस्त की गयीं थीं और उनमें अध्ययनरत छात्रों को विभिन्न राज्यों में पूर्व से ही विधिवत चल रहे विश्वविद्यालयों में समायोजित किया गयाहै.यहाँ भी ऐसा किया जा सकता है.


       अंतिम व महत्वपूर्ण प्रश्न है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम के पक्षधरों को कैसे संतुष्ट किया जा सकता है ? इस सम्बन्ध में यदि दिल्ली विश्वविद्यालय अपने उच्च मानदंड स्थापित करने के उद्देश्य से ही चार वर्षीय पाठ्यक्रम लागू करना चाहता है तथा छात्रों का एक वर्ग ऐसे पाठ्यक्रम में प्रवेश लेने का इच्छुक है तो दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा एक साथ दो पाठ्यक्रम शुरू किये जा सकते हैं. 

दिल्ली विश्वविद्यालय त्रिवर्षीय पाठ्यक्रम के साथ साथ पृथक से एक चार वर्षीय स्नातक (आनर्स) पाठ्यक्रम शुरू कर सकता है और उसके लिए सभी निर्धारित प्रक्रियाएं व औपचारिकताएं पूर्ण करे ताकि भविष्य में कोई विवाद उत्पन्न न हो.


ऎसी स्थिति में छात्रों के पास स्वेच्छानुसार त्रिवर्षीय या चार वर्षीय पाठ्यक्रम चुनने का विकल्प होगा.


वर्तमान में जो सीटें स्नातक पाठ्यक्रम में उपलब्ध हैं उनका कुछ प्रतिशत लगभग 25% चार वर्षीय पाठ्यक्रम हेतु निर्धारित किया जा सकता है तथा आने वाले वर्षों में अधोसंरचना,शैक्षणिक आदि स्टाफ की समुचित व्यवस्था कर ये सीटें आवश्यकता व उपयुक्तता अनुसार बढ़ाई जा सकतीं हैं.

जो छात्र विगत वर्ष चार वर्षीय पाठ्यक्रम में प्रवेश ले चुके हैं उन्हें भी विकल्प प्रदान किया जाये कि वे तीन वर्षीय पाठ्यक्रम में जाना पसंद करेंगे या फिर चार वर्षीय पाठ्यक्रम जारी रखना चाहेंगे.


यदि दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन,यू जीसी व अन्य सम्बन्धित पक्ष अपने अड़ियल रुख को त्याग कर इस फार्मूले पर विचार कर सहमत हों तो एक आसान व सम्मानजनक सर्वमान्य हल निकल सकता है.

Tuesday, January 7, 2014

क्या आम आदमी पार्टी की नयी तरह की राजनीति का प्रयोग वास्तव में एकदम नया व अनूठा है ?

आम आदमी पार्टी जिस तरह जनलोकपाल आन्दोलन से उपज कर राजनीति में आई, उसने नयी तरह की राजनीति की शुरूआत करने का दावा किया और मीडिया ने उनके राजनीति करने के तथाकथित नए ढंग को जिस तरह से प्रचारित किया उसे देख कर आम जनता को यह अनुभूति होना स्वाभाविक है कि यह अपनी तरह की एक नयी पहल है. इस सम्बन्ध में सबसे पहले यह समझना पड़ेगा कि इस पार्टी के संस्थापकों की मूल विचारधारा क्या है ? क्या ये लोग किसी ख़ास विचार धारा से जुड़े लोग हैं या फिर"कहीं की ईँट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा" वाली बात है ?
दरअसल पूरे देश में बहुत बड़ी संख्या में लोग वर्तमान सड़ी गली राजनीतिक व्यवस्था से तंग आ चुके  हैं और जनता का बहुत बड़ा वर्ग व्यवस्था परिवर्तन की चाह रखता है. आये दिन रोजमर्रा के कामों से लेकर बड़े बड़े सौदों में बढ़ते भ्रष्टाचार व भ्रष्टाचारियों के ऊपर किसी तरह की लगाम न लगा पाने के कारण भ्रष्टाचार पर प्रभावी अंकुश लगा सकने वाले क़ानून कीआवश्यकता महसूस की गयी.इस प्रयोजन से सिविल सोसायटी के कुछ सदस्यों ने मिलकर जनलोकपाल जैसे एक क़ानून का खाका तैयार किया और प्रसिद्ध समाज सेवी अन्ना हजारे के चेहरे को सामने रख एक देशव्यापी आन्दोलन चलाया.  अन्ना हजारे के आन्दोलन को पूरे देश में जिस तरह का समर्थन मिला वह अभूतपूर्व था. शुरूआत में तो ऐसे संकेत  भी मिले कि जनलोकपाल क़ानून को संसद की स्वीकृति मिल जायेगी पर राजनीतिक दलों के अंतर्विरोध के कारण हर बार यह जनलोकपाल बिल किसी न किसी कारण से पारित नहीं  हो सका.
अन्ना केआन्दोलन से समाज के हर विचारधारा के लोग जुड़े थे. इस आन्दोलन में ऐसे लोग भी थे जिनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ भी थीं जो किन्हीं कारणों से पूरी नहीं हो पायीं थीं. विभिन्न राजनीतिक संगठनों से जुड़े ऐसे लोग भी इस आन्दोलन में सम्मिलित थे जो अपने दलों में हाशिये  पर आ गए थे. आन्दोलन को मिले देशव्यापी जन समर्थन से कुछ लोगों को लगा कि  इस आन्दोलन का लाभ लेकर वे व्यवस्था परिवर्तन कर सकते हैं और उनकी इसी  इच्छा ने आन्दोलन को किसी सफल परिणिति की ओर न पहुँचते देख एक नयी राजनीतिक पार्टी का गठन कर डाला,जिसे अत्यधिक विचार मनन के बाद आम आदमी पार्टी नाम दिया. इस पार्टी का संयोजक एक ईमानदार,संघर्षशील व स्वच्छ छवि वाले गैर राजनीतिक व्यक्ति श्री अरविन्द केजरीवाल को बनाया गया. मानाजाता है कि अन्ना हजारे के पूरे आन्दोलन के पीछे अरविन्द केजरीवाल ने ही मुख्य रणनीतिकार की भूमिका निभाई थी.
आम आदमी पार्टी के संस्थापकों ने बड़ी ही कुशलता से दिल्ली विधान सभा चुनाव के ठीक एक वर्ष पूर्व पूरी रणनीति के अनुसार अपनी पार्टी  को दिल्ली विधान सभा के चुनावों में उतारने के उद्देश्य से गठित किया और उसके कार्यक्रम चलाये. दिल्लीविधानसभा के चुनावों  से ही अपनी पार्टी की चुनावी राजनीति की शुरूआत करने के पीछे इन लोगों का उद्देश्य साफ़ था कि  दिल्ली देश की राजधानी होने के कारण वहां पर होने वाली राजनीतिक गतिविधियों को  पूरे देश में किसी भी अन्य स्थान की अपेक्षा अधिक प्रचार प्रसार मिलेगा. वैसे भी अन्ना व रामदेव के बड़े आन्दोलनों का केंद्र बिंदु दिल्ली ही थे. कामन वैल्थ घोटाला, 2 जी घोटाला आदि के कारण दिल्ली हमेशा सुर्ख़ियों में बनी रही. इसी बीच १६ दिसंबर २०१२ की दिल्ली गैंगरेप की घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया और दिल्ली एक बार फिर स्व स्फूर्त जन आन्दोलनों का केंद्र बन गई थी. बढ़ती हुई महंगाई व भ्रष्टाचार से तो पूरे देश की जनता त्रस्त थी ही, फिर बिजली -पानी की समस्याओं की वजह से दिल्ली वासियों का जीना दूभर हो गया था तथा उनका आक्रोश शीला सरकार के प्रति बढ़ता ही गया.बिजली-पानी की समस्याओं को  लेकर आम आदमी पार्टी के धरना प्रदर्शनों के कारण आम आदमी पार्टी दिल्ली में तो लोकप्रिय हुई ही साथ ही पूरे देश में इसकी पहचान बन गयी.
आम आदमी पार्टी ने जिस तरह कम खर्चे में जनता के बीच जा कर अपना प्रचार किया उसे भले ही आम जनता ने व मीडिया ने नया तरह का प्रयोग माना हो परन्तु छात्र जीवन में या बाद में जो लोग जनवादी आन्दोलनों का हिस्सा रह चुके हैं या जिन्होंने दूर से उन आन्दोलनों को देखा हो उन्हें आम आदमी पार्टी की कार्य शैली में बहुत नया पन देखने को नहीं मिला होगा, न ही उन्हें इनके कार्य करने के ढंग पर कोई आश्चर्य ही हुआ होगा. घर घर जा कर प्रचार करना,नुक्कड़ नाटकों,छोटी छोटी सभाओं व हस्तनिर्मित बैनरों-पोस्टरों से प्रचार करने की उनकी यह नीति जनवादी संगठनों में हमेशा से चली आयी है. उसका कारण भी है कि उन संगठनों के पास अन्य बड़े राजनीतिक संगठनों की तरह पानी की तरह बहाने हेतु धन का अभाव भी रहता है. भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने वाले क़ानून का नाम जनलोकपाल रखने से ही यह अहसास हो चुका था कि इस आन्दोलन के पीछे कहीं न कहीं अतीत में जनवादी संगठनों या उनकी विचारधाराओं से जुड़े हुए लोगों का मस्तिष्क कार्य कर रहा है. आज भी यदि देखा जाये तो जितने भी लोग इस आम आदमी पार्टी में मूल रूप से जुड़े हुए हैं उन में से अधिकाँश की पृष्ठ भूमि या तो धुर वामपंथी या समाजवादी संगठनों की रही है.विज्ञान व तकनीक के आधुनिक काल में इन लोगों ने अपनी जनवादी सोच को  ही कुछ परिष्कृत कर प्रदर्शित करने का प्रयासकिया है.
अंत में  जिस प्रकार आम आदमी पार्टी कांग्रेस के समर्थन के बाद कांग्रेस से अपनी 18 शर्तों वाली चिट्ठी का जवाब पाने के बाद जनता के बीच गयी और इन्होंने जनता से सोसल मीडिया,एसएमएस के जरिये प्रतिक्रियाएं प्राप्त कीं औरदिल्ली के विभिन्न वार्डों में जा कर जन सभाएं कीं वह भी कोई नयी बात नहीं थी. सोसल मीडिया और इलेक्ट्रोनिक माध्यमों का प्रयोग तो ये लोग जनलोकपाल के आन्दोलन के समय से ही करते आ रहे थे.रही बात सभाओं में व्यक्तियों से हाथ खडा करवा  के उनकी सहमति या असहमति जानने की तो भले ही मीडिया ने यह प्रचारित किया हो कि यह नया तरीका है, मुझे इसमें कुछ भी नया नहीं लगा.जिसने भी पिछले कुछ महीनों की भाजपा के प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार श्री नरेन्द्र मोदी की सभाओं पर गौर किया हो उन्होंने देखा होगा कि वे लगभग हर सभा में मंच से अपने कुछ प्रश्नों के उत्तर के लिए लोगों की सहमति व असहमति प्रकट करवाने के लिए हाथ उठवातेहैं. यद्यपि उन सभाओं में अधिकाधिक भीड़ के कारण न तो उठे हुए हाथों को गिना जा सकता है न ही उसे किसी आंकड़े के रूप में प्रस्तुत करने की कोई आवश्यकता ही रहती है.
एक अन्य रूप में भी जन सभाओं और जन अदालतों का प्रचलन हमारे देश में प्रचलित है.छत्तीसगढ़ व अन्य राज्यों के नक्सली संगठन अक्सर जनसभाएं व जन अदालतें करते रहते हैं और जन अदालतों के माध्यम से अपने फैसले लेते रहते  हैं.

निष्कर्षत: आम आदमी पार्टी द्वारा अपनाया जाने वाला प्रयोग एकदम नया व अपने किस्म का अनूठा नहीं कहा जा सकता.

Saturday, January 19, 2013

राहुल गांधी के लिये :: अभी नहीं तो शायद कभी नहीं


कांग्रेस के दो दिवसीय चिंतन शिविर के कई महीनों पहले या यों कह लीजिये वर्षों पहले से यह मांग उठती रही है कि राहुल गांधी को पार्टी या सरकार में कोई बहुत बड़ी भूमिका दी जानी चाहिए.कांग्रेस में उनके समर्थक यह भी कहते थकते नजर नहीं आते कि उन्हें देश के भावी प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में घोषित कर उनके नेत्रत्व में ही २०१४ का लोकसभा चुनाव लड़ा जाए.कांग्रेस में ऐसा है भी कौन जो न चाहते हुए भी उनकी उम्मीदवारी का सार्वजनिक रूप से विरोध कर सके या कह सके कि राहुल गांधी के नेतृत्व में अभी तक ६-७ विधान सभा चुनाव लड़े जा चुके हैं तथा ऐसा कुछ भी हासिल नही हुआ जिसकी उम्मीद की जा रही थी.

वैसे तो राजनीति में कुछ भी नही कहा जा सकता कि कब कौन सा गणित काम कर जाए.कभी कभी सारे गणित फेल हो जाते हैं और कोई नया ही परिदृश्य उभर कर सामने आ सकता है,परन्तु एकदम किसी अप्रत्याशित घटना को छोड़ दिया जाए तो राजनीति की पारी क्रिकेट की पारी की तरह अनिश्चितता भरी भी नहीं होती है.अभी अभी जब मैं इस नोट को लिख रहा हूं तभी यह समाचार आ गया है कि राहुल गांधी को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया गया है.

अत:सर्व प्रथम मैं उन्हें कांग्रेस की नंबर दो की कुर्सी औपचारिक रूप से मिलने की बधाई देता हूं.जहां तक उन्हें औपचारिक रूप से नंबर २ की कुर्सी देने की बात है,वे तो पहले से ही पार्टी में दूसरे नंबर पर थे.इससे कांग्रेस को कितना नफा या नुक़सान होगा, इस पर कोई भी राय व्यक्त करना जल्दबाजी होगी.सोनिया गांधी,कांग्रेस के कई नेता व स्वयं राहुल गांधी भी यही चाहते हैं कि वे देश के प्रधान मंत्री बनें.प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह जी ने भी कई बार उन्हें केंद्र में मंत्री पद देने की इच्छा व्यक्त की थी पर राहुल गांधी स्वयं ही इसके लिये तैयार नही हुए या इस तरह का आत्मविश्वास नहीं दिखा सके.

कार्य समिति की बैठक के फैसले के पहले कयास लगाए जा रहे थे कि राहुल गांधी को कांग्रेस का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया जा सकता है या कोई बहुत महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी जा सकती है. एक तटस्थ और निष्पक्ष  विष्लेषक के रूप में मेरी अपनी सोच कुछ और थी.मैं सोचता था कि बेहतर होता कि कांग्रेस पार्टी अपने चिंतन शिविर का लाभ ले कर राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद पर सुशोभित करने का निर्णय ले लेती.इससे एक तो प्रधानमंत्री जी, जो बहुत खुले तौर पर निर्भीकतापूर्वक अपने पद का निर्वाह और सदुपयोग नही कर पा रहे हैं उन्हें भी आराम करने का मौका मिल जाता और वे एक कुशल अर्थ शास्त्री के रूप में देश की सेवा कर सकते तथा राहुल गांधी एक तो यू.पी.ए २ के बचे हुए कार्यकाल में प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए देश के सामने वर्तमान में उपस्थित विभिन्न चुनौतियों से निपटने में अपनी क्षमता व कुशलता का परिचय दे पाते और आगामी लोकसभा चुनावों में बेहतर भूमिका निभा सकते.शायद यह उनके लिये और कांग्रेस पार्टी के लिये अच्छा मौक़ा था और जनता भी उन्हें कम से कम एक साल तो परखने के लिये देती ही.भविष्य में पता नहींवे प्रधान मंत्री बन पायें या नहीं या फिर आडवाणी जी की तरह पी एम इन वेटिंग ही रह जायें.

जो भी हो,अभी भी उनके लिये मौक़ा है कुछ कर दिखाने का. वे दिखा सकें कि उनके पास कौन सी नीतियां हैं,कौन सी राजनीतिक सोच है.कौन सा करिश्मा है.कौन सा जोश है कि वो देश को कोई नयी दिशा दे सकते हैं.यदि अभी नहीं तो शायद फिर कभी नहीं.

Tuesday, December 18, 2012

पदोन्नति में आरक्षण से लाभ किसे ?


राज्य सभा में पदोन्नति में आरक्षण विधेयक पर वोटिंग से सभी राजनीतिक दलों ने अपना रुख स्पष्ट कर दिया है।वोट की राजनीति के अतिरिक्त देश की,समाज की किसी को चिंता नहीं  है। हर दल को इस बात की चिंता रही है कि विधेयक के समर्थन या विरोध से कहीं उसका वोट बैंक न खिसक जाए।उत्तर प्रदेश के संदर्भ में ही मुख्य लड़ाई थी जहां मायावती अपने दलित वोट को मजबूत करने विधेयक का समर्थन कर रही हैं तो मुलायम सिंह यह जानते हुए कि  मायावती के दलित वोट को तो विधेयक का समर्थन करने के बावजूद भी अपने पक्ष में नहीं किया जा सकता विरोध में डटे हैं ।उन्हें विशवास है कि  इस विधेयक का विरोध करने से उनका ओ बी सी वोटर विशेष रूप से यादव समुदाय तो उनके साथ बना ही रहेगा तथा आरक्षण  विरोधी सवर्ण समाज भी उनके साथ आ सकता है।आरक्षण में मुस्लिमों को जोड़ने के हिमायती मुलायम सिंह रहे हैं।ऐसे में यह माना जा सकता है कि आरक्षण विधेयक का विरोध करने से मुलायम सिंह की पार्टी को उत्तर प्रदेश में बसपा की अपेक्षा थोड़ा लाभ हो सकता है।बसपा को न कोई लाभ होगा न नुकसान,पर कांग्रेस और भाजपा को विधेयक के समर्थन से कोई लाभ होता दिखाई नहीं  देता।अब जनता इतनी मूर्ख नहीं रह गयी है कि वह बातों को न समझे।यह बात अलग है कि  राजनीतिक दल उसे मूर्ख समझ कर अपनी कुटिल चालें चलते रहते हैं।पदोन्नति में आरक्षण से यदि लाभ होगा तो केवल उन दलितों का होगा जो नौकरी में हैं या रहेंगे।जो नौकरी में ही नहीं हैं उन्हें किस तरह से लाभ होगा?आज देश में आरक्षित वर्ग का भी 90 फीसदी से अधिक गरीब व सामाजिक रूप से पिछडा तबका जो नौकरियों के लिए अपेक्षित शिक्षा प्राप्त न होने के कारण आरक्षण के बावजूद नौकरी नहीं पा सकता,पदोन्नति कहां से पायेगा?बचे लगभग 10 फीसदी जो दलितों में भी सम्पन्न होने के कारण अच्छी नौकरियां पा सकते हैं उन्हीं के वोटों पर राजनीति करते देश के भविष्य व सामाजिक न्याय को ताक पर रख राजनीति करने तुले हुए हैं ये राजनीतिक लोग,जिन्हें न तो स्वयं नौकरी करनी है न ही अपने पुत्र पुत्रियों को कोई छोटी मोटी नौकरी करानी है। बस समाज के विभिन्न वर्ग इन लोगों की वजह से आपस में लड़ते रहें और सामाजिक सदभाव कभी पैदा न हो सके तथा ये लोग अंग्रेजों की फ़ूट डालो और राज्य करो की नीति का अनुसरण करते रहें