हमारे
देश में किसी भी मामले को विवादित बनाने और उस विवाद की आड़ में विभिन्न
राजनीतिक दलों व विचारधाराओं के अनुयायियों द्वारा अपना हित साधने की
अंतहीन कोशिश जारी रखना एक परम्परा बन गयी है.कभी सामान्य से मामलों को
अवांछित जिद,प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर व अपने अपने अहम की तुष्टि हेतु
इतना तूल दिया जाता है कि प्रभावित पक्ष के हितों को भी ताक पर रख दिया
जाता है. समाज को उचित दिशा देने हेतु सर्वाधिक जिम्मेदार तथाकथित
बुद्धिजीवी भी इसी मानसिकता के अधिक शिकार देखे गए हैं.बुद्धिजीवी वर्ग भी
खेमों में बंटा हुआ है तथा वह भी अपनी राजनीतिक विचार धारा के अनुसार किसी
भी मुद्दे का आँख मूँद कर समर्थन या विरोध करने लग जाता है. क्या ऐसा नहीं
हो सकता कि सार्वजनिक हित के मुद्दों पर आपसी मतभेद, व्यर्थ की जिद व टकराव
को छोड़कर एक साथ मिल बैठ कर सामंजस्य से ऎसी नीति बनायी जाए जो देश के हर
वर्ग के लिए लाभदायक हो तथा राष्ट्र की प्रगति में सहायक हो ? क्या किसी भी
सरकार या संस्था के किसी भी निर्णय का बिना गुण दोष को जाँचे परखे इस आधार
पर समर्थन या विरोध किया जाना आवश्यक है कि निर्णय लेने वाली सरकार या
संस्था की विचारधारा से हमारी विचारधारा मेल खाती है या नहीं ? क्या ऐसे
समर्थन या विरोध के समय समाज व देश के हित को सर्वोपरि नहीं रखा जाना चाहिए
? यदि किसी भी जटिल से जटिल समस्या का ईमानदारी व दृढ़ संकल्प से समाधान
निकालने का प्रयास किया जाए तो कुछ भी असंभव नही है और आपसी बातचीत से हर
जटिल समस्या का सुगम व सर्वमान्य हल निकाला जा सकता है.
ताजा
विवाद दिल्ली यूनिवर्सिटी के चार वर्षीय डिग्री पाठ्यक्रम से उत्पन्न हुआ
है जहां यूजीसी और त्रि-वर्षीय डिग्री पाठ्यक्रम के समर्थकों का बड़ा वर्ग
और दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति व कार्य परिषद के चार वर्षीय पाठ्यक्रम
के समर्थक एक दूसरे के आमने सामने हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ का
एक बड़ा वर्ग व विभिन्न छात्र संगठन जहां त्रि-वर्षीय पाठ्यक्रम व यूजीसी
के निर्देश के पक्ष में हैं तो वहीं दूसरी तरफ चार वर्षीय पाठ्यक्रम के
समर्थक इसे विश्वविद्यालय की स्वायत्तता व अस्मिता से जोड़ कर देख रहे हैं
तथा यूजीसी के किसी भी निर्देश को विश्वविद्यालय की स्वायत्तता में
हस्तक्षेप मान रहे हैं. दोनों पक्ष कुछ हद तक अपनी अपनी मान्यताओं के बारे
में सही हो सकते हैं लेकिन दोनों की आपसी लड़ाई में सर्वाधिक नुकसान छात्रों
का ही हो रहा है वह भी उन छात्रों का जो सुदूर स्थानों से दिल्ली
विश्वविद्यालय के विभिन्न कालेजों में प्रवेश के लिए आये हुए हैं.
देश
में किसी भी विश्वविद्यालय या उच्च शिक्षा संस्थान की स्थापना
विश्वविद्यालयअनुदान आयोग अधिनियम के प्रावधानों के अधीन होती है तथा
विश्वविद्यालय स्थापना के बाद अपने नियम,परिनियम आदि बनाता है जिनके अनुरूप
ही विश्वविद्यालय का प्रशासन चलता है. यूजीसी उच्च शिक्षा के क्षेत्र में
देश की सर्वोच्च संस्था है तथा समस्त विश्वविद्यालयों को आर्थिक अनुदान
प्रदान करती है. यूजीसी एक्ट में स्पष्ट प्रावधान है कि विश्वविद्यालयों और
उच्च शिक्षण संस्थानों को यूजीसी द्वारा समय समय पर जारी अधिसूचनाओं आदि
के अनुसार अपने नियमों,परिनियमों आदि में संशोधन कर तदनुसार कार्यवाही करनी
पड़ेगी तथा ऐसा न किये जाने की स्थिति में यूजीसी द्वारा उक्त
विश्वविद्यालय को आर्थिक अनुदान देना समाप्त किया जा सकेगा तथा यदि यूजीसी
अपनी उच्चाधिकार प्राप्त समितियों के माध्यम से जांच व समीक्षा के आधार पर
यह पाती है कि विश्वविद्यालय या संस्थान द्वारा उसकी अधिसूचनाओं या
मार्गदर्शी निर्देशों का पालन नहीं किया जा रहा है तो ऐसे विश्वविद्यालय या
संस्थान की मान्यता भी रद्द की जा सकती है. शायद ही देश का ऐसा कोई अनुदान
प्राप्त विश्वविद्यालय हो जो यूजीसी से आर्थिक अनुदान प्राप्त किये बिना
ही स्वयं के स्त्रोतों से संचालित हो सके. यदि यूजीसी से अनुदान प्राप्त न
हो तो अधो संरचना को तो छोड़ ही दीजिये शिक्षकों व अन्य कर्मचारियों का वेतन
भुगतान भी करना संभव न होगा. यूजीसी सर्वोपरि है या विश्वविद्यालय की
स्वायत्तता यह बहुत लम्बी बहस का मुद्दा है तथा इसका समाधान खोजने तक शायद
पूरा शैक्षणिक सत्र ही निकल जाए. यह सत्य है कि वर्तमान में राष्ट्रीय
शिक्षा नीति में 10+2+3 की प्रणाली चल रही है तथा प्रथम डिग्री
पाठ्यक्रम(त्रिवर्षीय या चार वर्षीय) में प्रवेश हेतु 10+2 उत्तीर्ण होना
आवश्यक है. देश के अधिकाँश विश्वविद्यालयों में त्रिवर्षीय स्नातक
पाठ्यक्रम लागू है जो गत सत्र से पूर्व दिल्ली विश्वविद्यालय में भी समान
रूप से लागू था. कुछ विश्वविद्यालयों में चार वर्षीय पाठ्यक्रम वाला
(स्नातक आनर्स) पाठ्यक्रम भी बहुत पहले से लागू है.यह भी सत्य है कि किसी
भी उच्च शिक्षण संस्था को अपने पाठ्यक्रमों में फेरबदल करने हेतु कई
औपचारिकताएं पूर्ण करने के बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से पूर्वानुमति
लेना आवश्यक है तथा दिल्ली विश्वविद्यालय अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार
नया पाठ्यक्रम प्रारम्भ करने से पूर्व विजिटर (दिल्ली विश्वविद्यालय के
मामले में महामहिम राष्ट्रपति) की पूर्वानुमति आवश्यक है. दिल्ली
विश्वविद्यालय ने चार वर्षीय पाठ्यक्रम शुरू करनेसे पहले विभिन्न
औपचारिकताएं पूरी कीं या नहीं या फिर यह पाठ्यक्रम बिना औपचारिकताएं पूर्ण
किये ही गत सत्र में अचानक लागू कर दिया गया यह जांच का विषय हो सकता है
परन्तु वर्तमान विवाद उन छात्रों के फायदे व नुकसान से जुडा हुआ है जो गत
सत्र में चार वर्षीय पाठ्यक्रम में प्रवेश ले चुके हैं तथा वर्तमान में
विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने का इंतजार कर रहे हैं.ऐसे में छात्र हित को
ध्यान में रखते हुए सभी पहलुओं पर निम्नानुसार विचार करना आवश्यक प्रतीत
होता है.
1) देश के सर्वाधिक विश्वविद्यालयों यहाँ तक कि
केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में तीन वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम लागू है और
सफलतापूर्वक चल रहा है.
2) सारे देश में स्नातकोत्तर कक्षाओं में
प्रवेश हेतु स्नातक की डिग्री अनिवार्य है,ऐसे में जो छात्र चार वर्षीय
स्नातक डिग्री के आधार पर स्नातकोत्तर कक्षाओं में प्रवेश लेना चाहेंगे
उन्हें एक वर्ष अधिक इन्तजार करना पडेगा.
3) वर्तमान में केंद्र की
सिविल सर्विसेस व राज्य स्तरीय परीक्षाओं में न्यूनतम योग्यता स्नातक
उपाधि है , ऐसे में चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम में प्रवेश लेने वाले
छात्रों को नौकरी की तलाश में एक वर्ष अधिक इन्तजार करना होगा और उनके
रोजगार के अवसर कम होंगे.
4) कई अन्य ऐसे रोजगार के क्षेत्र हैं
जहां न्यूनतम वांछित योग्यता स्नातक या स्नातकोत्तर होती है,वहां भी चार
वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम से उत्तीर्ण छात्रों को आवेदन करने पात्र होने
हेतु एक वर्ष का नुकसान होगा.
5) इसी प्रकार का नुकसान उन छात्रों
को उठाना पडेगा जो स्नातकोत्तर के बाद शोध पाठ्यक्रमों एम्.फिल या पीएचडी
में प्रवेश के इच्छुक होंगे या फिर नेट या स्लेट की परीक्षाओं में सम्मिलित
होना चाहते हैं.क्योंकि वर्तमान में इन पाठ्यक्रमों में प्रवेश हेतु
न्यूनतम योग्यता स्नातकोत्तर उपाधि है.
6) अधिकांश कालेजों व
विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेने वाले छात्रों में अधिकतम संख्या उन
छात्रों की होती है जो निम्न,निम्न-मध्यम या मध्यम आर्थिक पृष्ठभूमि वाले
परिवारों से आते हैं,ऐसे में चार वर्षीयपाठ्यक्रम पूर्ण करने के लिए इन
वर्गों के छात्रों को अतिरिक्त आर्थिक बोझ उठाना पडेगा.
7) अब
प्रश्न उठता है कि जिन छात्रों को गत सत्र में चार वर्षीय पाठ्यक्रमों में
प्रवेश दे दिया गया है उनका क्या होगा. इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय है कि
विगत वर्षों में भी कई विश्वविद्यालयों की मान्यताएं विभिन्न कारणों से
निरस्त की गयीं थीं और उनमें अध्ययनरत छात्रों को विभिन्न राज्यों में
पूर्व से ही विधिवत चल रहे विश्वविद्यालयों में समायोजित किया गयाहै.यहाँ
भी ऐसा किया जा सकता है.
अंतिम व महत्वपूर्ण प्रश्न है
कि दिल्ली विश्वविद्यालय के चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम के पक्षधरों को
कैसे संतुष्ट किया जा सकता है ? इस सम्बन्ध में यदि दिल्ली विश्वविद्यालय
अपने उच्च मानदंड स्थापित करने के उद्देश्य से ही चार वर्षीय पाठ्यक्रम
लागू करना चाहता है तथा छात्रों का एक वर्ग ऐसे पाठ्यक्रम में प्रवेश लेने
का इच्छुक है तो दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा एक साथ दो पाठ्यक्रम शुरू किये जा सकते हैं.
दिल्ली विश्वविद्यालय त्रिवर्षीय पाठ्यक्रम के
साथ साथ पृथक से एक चार वर्षीय स्नातक (आनर्स) पाठ्यक्रम शुरू कर सकता है
और उसके लिए सभी निर्धारित प्रक्रियाएं व औपचारिकताएं पूर्ण करे ताकि
भविष्य में कोई विवाद उत्पन्न न हो.
ऎसी स्थिति में छात्रों के पास स्वेच्छानुसार त्रिवर्षीय या चार वर्षीय पाठ्यक्रम चुनने का विकल्प होगा.
वर्तमान
में जो सीटें स्नातक पाठ्यक्रम में उपलब्ध हैं उनका कुछ प्रतिशत लगभग 25%
चार वर्षीय पाठ्यक्रम हेतु निर्धारित किया जा सकता है तथा आने वाले वर्षों
में अधोसंरचना,शैक्षणिक आदि स्टाफ की समुचित व्यवस्था कर ये सीटें आवश्यकता
व उपयुक्तता अनुसार बढ़ाई जा सकतीं हैं.
जो छात्र विगत वर्ष चार
वर्षीय पाठ्यक्रम में प्रवेश ले चुके हैं उन्हें भी विकल्प प्रदान किया
जाये कि वे तीन वर्षीय पाठ्यक्रम में जाना पसंद करेंगे या फिर चार वर्षीय
पाठ्यक्रम जारी रखना चाहेंगे.
यदि दिल्ली विश्वविद्यालय
प्रशासन,यू जीसी व अन्य सम्बन्धित पक्ष अपने अड़ियल रुख को त्याग कर इस
फार्मूले पर विचार कर सहमत हों तो एक आसान व सम्मानजनक सर्वमान्य हल निकल
सकता है.
nice posrt
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